बोरियों में घर/जसराज बिश्नोई

सारा कमरा थैलों में बंध चुका है।
कपड़े, किताबें, टूटा मग,
एक कोने में रखा गाँव से आया पुराना कंबल—
सब किसी पंछी की तरह पिंजरे में कैद।

दीवारें देख रही हैं,
जैसे पहचानती हों मेरा चेहरा
और जानती हों कि कल
यहाँ कोई और होगा।

खिड़की के बाहर
शहर अब भी भाग रहा है—
पर मेरे भीतर
बस ठहराव है, थकान है,
और थोड़ी-सी चुप्पी।

हर बार यही होता है,
मैं अपने घर को बोरियों में भरकर
एक जगह से दूसरी जगह चला जाता हूँ,
जैसे मैं कोई किराए का मौसम हूँ,
जो कहीं टिकने के लिए बना ही नहीं।

कल फिर एक नया ताला होगा,
नयी चाबी,
नया मोहल्ला,
और वही पुराना मैं।

आज की रात बस बैठा हूँ
इस कमरे की आख़िरी सांस सुनते हुए।

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