ग़ज़ल उर्दू साहित्य की एक बेहद लोकप्रिय और लयात्मक काव्य विधा है, जो शेरों (Couplets) की श्रृंखला में लिखी जाती है। हर शेर अपने आप में स्वतंत्र होता है, लेकिन पूरी ग़ज़ल में एक समान लय, तुकांत और भाव प्रवाह बनाए रखा जाता है। ग़ज़ल लिखने के लिए इसके मुख्य अंगों का ज्ञान होना ज़रूरी है, क्योंकि ये ही इसकी संरचना और सौंदर्य तय करते हैं। बिना इन अंगों को समझे ग़ज़ल लिखना वैसा ही है जैसे बिना ढांचे के इमारत बनाना।
ग़ज़ल के मुख्य अंग – सूची
-
मतला (Matla)
-
मक़्ता (Maqta)
-
रदीफ़ (Radif)
-
काफ़िया (Kaafiya)
-
बह्र (Behr)
1. मतला (Matla)
-
ग़ज़ल का पहला शेर मतला कहलाता है।
-
इसमें दोनों पंक्तियों में रदीफ़ और काफ़िया का प्रयोग होता है।
-
मतला ग़ज़ल की तुकांत और रदीफ़ की परंपरा तय करता है, जिसे आगे हर शेर में बनाए रखना पड़ता है।
उदाहरण:
तेरे बिना कोई सुकून मुझको नहीं आया
दिल रोता रहा पर तेरा ख़त भी नहीं आया
2. मक़्ता (Maqta)
-
ग़ज़ल का अंतिम शेर मक़्ता कहलाता है।
-
इसमें शायर अपना तख़ल्लुस (कवि का उपनाम) इस्तेमाल करता है।
-
इससे ग़ज़ल में व्यक्तिगत पहचान और भावनात्मक गहराई जुड़ जाती है।
उदाहरण:
‘फ़िराक़’ उस बेवफ़ा से क्या शिकवा करे अब
जिसे याद भी हमको कभी नहीं आया
3. रदीफ़ (Radif)
-
रदीफ़ वह स्थिर शब्द या वाक्यांश है जो हर शेर की दूसरी पंक्ति के अंत में आता है।
-
रदीफ़ पूरी ग़ज़ल में एक जैसा रहता है।
-
यह ग़ज़ल में संगीतात्मकता और एकरूपता लाता है।
उदाहरण:
रदीफ़ = "नहीं आया"
4. काफ़िया (Kaafiya)
-
रदीफ़ से पहले आने वाला तुकांत शब्द काफ़िया कहलाता है।
-
काफ़िया का उच्चारण समान होना चाहिए, लेकिन शब्द अलग-अलग हो सकते हैं।
-
काफ़िया, रदीफ़ के साथ मिलकर ग़ज़ल में लय और तुक पैदा करता है।
उदाहरण:
काफ़िया = "गया", "किया", "लिया", "पिया" (रदीफ़ “नहीं आया” से पहले)
5. बह्र (Behr)
-
ग़ज़ल की लय या मात्रा पैटर्न को बह्र कहते हैं।
-
ग़ज़ल के हर शेर की दोनों पंक्तियों में समान मात्राएँ होनी चाहिए।
-
बह्र छोटी, मध्यम या बड़ी हो सकती है, और यह ग़ज़ल के संगीतात्मक प्रवाह को तय करती है।
समापन
ग़ज़ल लिखने का अभ्यास करते समय इन पाँचों अंगों का ध्यान रखना अनिवार्य है। पहले एक सरल बह्र चुनें, फिर मतला और रदीफ़-काफ़िया तय करें, और अंत में मक़्ता जोड़ें। अभ्यास के साथ आप शेरों में गहराई, भावनात्मकता और लयात्मकता ला सकेंगे।
0 Comments